बांडुरा का सामाजिक अधिगम/प्रेक्षणात्मक अधिगम (Observational Learning theory)
इस सिद्धांत के प्रतिपादक बंडुरा और वाल्टर्स (Albert Bandura and R.H. Walters, 1963) हैं। इन्होंने अपनी पुस्तक Social Leaming and Personality Development में व्यक्तित्व-विकास में सामाजिक अधिगम को महत्व दिया है। बंदूरा (Bandura) को प्रेक्षणात्मक अधिगम का प्रवर्तक माना जाता है। इस प्रकार के अधिगम में व्यक्ति सामाजिक व्यवहारों को सीखता है, इसलिए इसे कभी-कभी सामाजिक अधिगम भी कहा जाता है अर्थात् "वह प्रक्रिया जिसमें व्यक्ति दूसरे के व्यवहार को देखकर सीखता है न कि प्रत्यक्ष अनुभव में उसे 'सामाजिक अधिगम' कहते हैं।" बहुत बार हमारे सामने ऐसे सामाजिक स्थितियाँ आती है जिनमें हमें यह पता नहीं होता है कि हमें कैसा व्यवहार करना चाहिए। ऐसी स्थिति में हम दूसरों के व्यवहार का प्रेक्षण करते हैं और उनकी तरह व्यवहार करने लगते हैं।
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प्रयोग : बंडूरा ने सामाजिक अधिगम को समझने के लिए एक प्रयोग किया। जिसमें बच्चों को पाँच मिनट की एक फिल्म दिखाई गई। फिल्म में एक कमरे में बहुत सारे खिलौने रखे थे उनमें एक खिलौना बहुत बड़ा सा गुड्डा (बोबो डॉल) था। एक लड़का कमरे में प्रवेश करता है, वह सभी खिलौने के प्रति क्रोध प्रदर्शित करता है और बड़े खिलौने के प्रति विशेष रूप से आक्रामक हो उठता है। इसके बाद का घटनाक्रम तीन अलग रूपों में तीन फिल्मों में तैयार किया गया। एक फिल्म में बच्चों के समूह ने देखा कि आक्रामक व्यवहार करने वाले लड़के (मॉडल) को पुरस्कृत किया गया। और एक प्रौढ व्यक्ति ने उसके आक्रामक व्यवहार की प्रशंसा की। दूसरी फिल्म में बच्चों के समूह ने देखा कि उस लड़के को उसके आक्रामक व्यवहार के लिए दण्डित किया गया। तीसरी फिल्म में बच्चों के तामर समूह ने देखा कि लड़के को न तो पुरस्कृत किया गया और न ही दण्डित किया गया। फिल्म देख लेने के बाद सभी बच्चों को एक अलग प्रायोगिक कक्ष में बिठाकर विभिन्न प्रकार के खिलौने से खेलने के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया गया। प्रयोग में यह पाया कि जिन वच्चों ने खिलौनों के प्रति किये जाने वाले आक्रामक व्यवहार को पुरस्कृत होते हुए देखा था, वे खिलौने के प्रति सबसे अधिक आक्रामक थे। सबसे कम आक्रामकता उन बच्चों ने दिखाई जिन्होंने फिल्म में आक्रामक व्यवहार को दंडित होते हुए देखा था।
सामाजिक अधिगम (प्रेक्षणात्मक अधिगम) के उदाहरण निम्नलिखित हैं
1. बच्चे अधिकांश सामाजिक व्यवहार प्रौढ़ों का प्रेक्षण तथा उनकी नकल करके सीखते हैं। कपड़े पहनना, बालों को संवारने की शैली और समाज में कैसे रहा जाये ये सब दूसरों को देखकर सीखा जाता है।
2. बच्चों में व्यक्तित्व का विकास भी प्रेक्षणात्मक अधिगम के द्वारा होता है।
3. आक्रामकता, परोपकार, परिश्रम, नम्रता आदर, आलस्य आदि गुण भी अधिगम कि इसी विधि द्वारा अर्जित किये जाते हैं।
सामाजिक अधिगम के अवस्थान (Phases of Social Learning)
बंदूरा के अनुसर सामाजिक अधिगम को चार अवस्थायें होती हैं
(1) अवधानात्मक अवस्थान (Attentional Phase) : सामाजिक अधिगम में प्रतिमान का महत्वपूर्ण स्थान है। प्रतिमान के व्यवहार का ही अनुकरण किया जाता है। किन्तु निरीक्षणकर्ता जब तक मॉडल की ओर ध्यान नहीं देगा यह उसके गुणों की ओर सचेत नहीं होगा। निरीक्षणक्ता का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिये मॉडल आकर्षक, लोकप्रिय, रोचक तथा सफल होने चाहिये।
(2) धारणात्मक अवस्थान (Retention Phase) : जब बालको का प्यान मॉडल की ओर आकर्षित हो जाये तो ऐसे समय मॉडल को वह ध्यवहार करना चाहिये जो वह चाहता है कि निरीक्षणकर्ता उसका अनुकरण करें। उसको अभ्यास का अवसर देना चाहिये। ध्यान आकर्षित होने पर ही तानात्मक प्रक्रिया द्वारा अधिगम आरम्भ होता है और ज्ञानात्मक प्रक्रिया आरम्भ होने पर ही निरीक्षणंकतां अनुकरणीय व्यवहार को मस्तिष्क में धारण करता है।
(3) पुनरुत्पादनात्मक अवस्थान (Reproduction Phase) : सामाजिक अधिगम का अंतिम चरण अनुप्रेरण है। बालक उस व्यवहार का अनुकरण करना सीखते हैं जिसके पुष्टिकरण की उनको अधिक आशा होती है। पुष्टिकरण ही एक प्रकार का अनुप्रेरण है। व्यवहार का अनुकरण करके वैसा ही व्यवहार करना पुनरुत्पादनात्मक अवस्थान कहलाता है। शैक्षिक उपयोग
बंदूरा द्वारा प्रतिपादित सामाजिक अधिगम सिद्धांत शिक्षा प्रक्रिया में अधिक उपयोगी हो सकता है। इसके उपयोग के निम्नलिखित क्षेत्र हो सकते हैं
(1) व्यक्तित्व निर्माण में सामाजिक अधिगम अधिक उपयोगी सिद्ध हो सकता है। छात्रों के व्यक्तित्व निर्माण के लिये उनके सामने आदर्श व्यवहार वाले प्रतिमान प्रस्तुत करने चाहिये। प्रतिमान या मॉडल उपस्थित करने के उपयोगी माध्यम रेडियो, टेलीविजन, पुस्तक, कहानी, नाटक आदि हो सकते हैं। अध्यापक स्वयं भी एक प्रतिमान होता है। प्रारंभ में छात्र अपने शिक्षक के गुणों का अनुकरण करते हैं। इसीलिये अध्यापक का व्यक्तित्व अच्छा होना चाहिये। आजकल शिक्षक इस तथ्य को भूलते जा रहे हैं। विद्यालय के प्रारंभिक वर्षों में मौखिक रूप में गुणों के उपदेश देने के स्थान पर प्रतिमान के गुणों को स्वयं धारण करने का प्रयास शिक्षक को करना चाहिये ताकि वह आदर्श मॉडल के रूप में अपने विद्यार्थियों के सामने सिद्ध हो सके।
(2) विशिष्ट या असामान्य व्यवहार करने वाले बालकों को प्रतिरूपण के माध्यम से सुधारा जा सकता है।
(3) बालक अच्छे-बुरे में विभेद करने में अपने को असमर्थ पाता है। यही कारण है कि यदि प्रतिमान बुरा व्यवहार करता है तो बालक अनुकरण द्वारा उसे सीख लेता है। अतः विद्यालय या कक्षा-कक्ष स्थितियों में प्रतिमान अर्थात् बुरे व्यवहार को उपस्थित नहीं करना चाहिये। उदाहरण के लिए विद्यालय में बालकों के सामने शिक्षक को धूम्रपान नहीं करना चाहिये। शिक्षक को आक्रामक व्यवहार से बचना चाहिये।
(4) बालकों के व्यवहार में परिवर्तन या सुधार लाने में यह विधि अधिक उपयोगी सिद्ध हो सकती है।

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